“बेवक़्त अक्सर यूँ ही अपने शब्दों में खो जाता हूँ,
कि अक्सर अपनी क़लम को सीने से जकड़े ही सो जाता हूँ।।”
ख़्वाबों को बाँधकर खुद से जो बुन लेता हूँ चंद कहानियाँ मैं,
नशे में जैसे लीन हो गिन लेता हूँ तेरी परछाइयाँ भी मैं।।
यार नहीं तू, शायद हमदम भी नहीं।
एक सपना है, जो मुकम्मल जाने कब होगा।
की यूँ कह लो एक ख़्याल भर महज़ है,
जिसकी महक आज भी जिस्म पर रह गयी।
नशा भी कम न हुआ जिसका,
की शायद, शायद ये दूरी आज भी चंद फ़ासलो में बह गई।।
तो यूँ कह लें कि सफर है अनजाना सा,
शब्दों को चुन कर चलो एक ढाल बना लेते हैं,
ख़्याल जो सारे बुनकर बैठें हैं,
साथ मिलकर उन्हें सजा लेते है।।
हाँ।।
दूर तो हो तुम मुझसे,
पर इतनी भी नहीं के बुलाने पर आओ भी ना।।
बस एक ख्वाइश है जो अब बाकी है मेरी।
तेरी सूरत ओर सीरत का दीदार कर लेने दे।
बस एक आख़िरी,
एक आख़िरी बार खुद से ये सवाल कर लेने दे।
कल तू साथ होगी भी या नहीं,
मुझे आज ये ख़्वाब जी लेने दे।।
एक बार तुझसे उसी ख़्याल सा बन प्यार कर लेने दे,
की एक बार तो मुझे,
तुझे अपना यार कह लेने दे।।
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